2024 के लोकसभा चुनाव में भले ही अभी एक साल का वक्त है, मगर सियासी दलों की तैयारियां अभी से शुरू हो गई हैं. खासकर विपक्षी दलों में काफी हलचल देखी जा रही है. विपक्ष के कई नेताओं को लगता है कि जिस तरह की एकजुटता का परिचय विपक्ष ने संसद में दिया था और संसद पूरे बजट सत्र के लिए नहीं चल पाया था. मगर सबको मालूम है कि सभी विपक्षी दलों को इकट्ठा करना कोई आसान काम नहीं है. यह मेंढकों को तराजू में तौलने से बड़ा काम है. क्योंकि यहां पर सभी के अपने-अपने मुद्दे हैं, अपने-अपने स्वार्थ हैं और अपने-अपने वोट बैंक हैं. और ये वोट बैंक राष्ट्रीय पार्टी यानि कांग्रेस से टकराते रहते हैं. कहने का मतलब है कि ज्यादात्तर राज्य जहां विपक्षी दल सत्ता में है, वहां कांग्रेस उनके सामने चुनाव लड़ती है और यहीं पर बात बिगड़ जाती है.

दूसरी बात है जो किसी से छिपी नहीं है वह है कि कई विपक्षी दल राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकराने के लिए तैयार नहीं हैं. कांग्रेस भले ही विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी हो मगर पिछले कई चुनावों में उसका प्रर्दशन इतना बुरा रहा है कि बाकी दल उसके नेतृत्व पर अंगुलियां उठाने लगे हैं. और इसी के साथ राहुल के नेतृत्व पर भी सवाल खड़े होने लाजिमी है.

विपक्षी दल सोनिया गांधी को अभी नेता मानने को तैयार है, क्योंकि उन्होंने यूपीए 1 और 2 के अध्यक्ष के रूप में सभी सहयोगी दलों को भरोसे में रखा और साथ चलीं. मगर राहुल गांधी के पास अपने राजनीतिक कौशल दिखाने के नाम पर कुछ नहीं है. यही वजह है कि इस बार कांग्रेस को गैर गांधी अध्यक्ष मिला है खरगे के रूप में जो कर्नाटक में लगातार 9 बार विधायक रहे. वहां के गृह मंत्री रहे. केंद्र में मंत्री रहे और अब राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं. और वही बने हैं विपक्षी एकता के सूत्रधार और उनके साथ हैं शरद पवार.

खरगे 80 साल के हैं तो पवार 82 साल के. दोनों के पास 56-56 साल का सियासी अनुभव है. दोनों के लिए राजनीति जीवन जीने का जरिया है. यही वजह है कि विपक्ष के या कहें देश के किसी भी नेता को इनसे मिलने में कोई संकोच या गिला शिकवा नहीं होता है. अभी बिहार के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री मिल कर जा चुके हैं. खरगे और शरद पवार मिलते रहते हैं और संपर्क में रहते हैं.

इन दोनों नेताओं ने यह तय किया है कि सभी विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात करें, उससे पहले उन नेताओं के विचार जानने की जिम्मेदारी भी तय कर दी गई है. यह भी तय हुआ है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से संर्पक किया जाएगा. इसमें से नवीन पटनायक को छोड़कर तीन मुख्यमंत्री कांग्रेस में रहे हैं.

केसीआर ने राजनीति की शुरुआत यूथ कांग्रेस से की थी. फिर तेलगू देशम गए थे. मगर जब टीआरएस बनाई तो 2004 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ा था. ममता बनर्जी तो लंबे समय तक कांग्रेस में रहीं और जगन मोहन के पिता आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, जब उनका एक दुर्घटना में निधन हो गया था. मगर खरगे, पवार और नीतीश कुमार की सबसे बड़ी चुनौती होगी एक बड़े मुद्दे पर सभी विपक्षी दलों को राजी करना. यह ऐसा मुद्दा होना चाहिए जो हिंदुत्व के मुद्दे के सामने टिक पाए क्योंकि अगले साल लोकसभा चुनाव तक राम मंदिर बन कर तैयार हो जाने की उम्मीद है फिर चुनाव यदि मई में होता है तो एक महीने पहले रामनवमी भी होगी. ऐसे में चुनाव के मुद्दे क्या हो जाएंगे, ये अभी बता पाना मुश्किल है और यही है विपक्ष की सबसे बड़ी चुनौती. मगर लगता है कि विपक्ष के दो सबसे अनुभवी बड़े नेताओं ने भी कुछ करने की ठान ली है क्योंकि शरद पवार और मल्लिकार्जुन खरगे के लिए 2024 का लोक सभा चुनाव शायद सक्रिय रूप से लड़ा जाने वाला अंतिम चुनाव हो. इसलिए उन्होंने भी सोचा है कि इस बार नहीं तो कभी नहीं.